सर्वरोगनाशक है त्रिफला

भारत में 200 साल पहले बायो-मेडिसिन आने के पूर्व, लगभग 5000 साल तक, आयुर्वेद ही प्रमुख चिकित्सा पद्धति रही है। तब न केवल बीमार व्यक्तियों का उपचार किया जाता है, अपितु स्वस्थ व्यक्ति को स्वस्थ रखने की विस्तृत और लोकप्रिय विधा प्रचलन और प्राथमिकता में रही है। आज भी लगभग 70 प्रतिशत भारतीय कभी न कभी आयुर्वेदिक औषधियों पर किसी न किसी रूप में निर्भर हैं, परन्तु तथाकथित मॉडर्न मेडिसिन आने के पश्चात स्वस्थ व्यक्तियों के स्वास्थ्य की रक्षा का उद्देश्य लगभग भुला दिया गया है। भारत में आयुर्वेद की अवहेलना ने कथित आधुनिक चिकित्सा पद्धति को बीमारों का एक दुधारू अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार दे दिया है। और अब, आयुर्वेद की रसायन चिकित्सा की उपेक्षा से बढ़ रहे रोगी, और उनसे मिल रहे धन से प्रायोजित विज्ञापनों ने, इतना चकाचौंध कर दिया कि हम सार्वजनिक, पारिवारिक और व्यक्तिगत स्वास्थ्य के विरुद्ध हो रहे इस प्रज्ञापराध को देखने के बावजूद नहीं देखते। कम से कम 5000 वर्षों तक भारतीय समाज की निरंतर सेवा करने वाला त्रिफला जैसा अमृत भी इसी छल-कपट का शिकार हो गया।
त्रिफला आज भी भारत में सबसे अधिक खरीदी और फेंकी जाने वाली आयुर्वेदिक औषधियों में गिना जाता है। अनुभवजन्य ज्ञान यह भी बताता है कि जाति, धर्म, निवास स्थान, जलवायु एवं भौगोलिक परिस्थितियों से ऊपर उठ कर प्रत्येक घर में त्रिफला की कुछ न कुछ मात्रा अवश्य पाई जाती है। आयुर्वेद का ऐसा कोई ग्रन्थ नहीं जिसमे त्रिफला को एक उच्चकोटि का रसायन न माना गया हो। भारत के चार लाख आयुर्वेदाचार्यों में ऐसा कोई वैद्य नहीं जिसने त्रिफला को अपनी चिकित्सा में प्रशस्त न किया हो। चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, अष्टांग हृदय सहित अन्य ग्रन्थों के निचोड़ स्वरूप यह कहा जाता है कि त्रिफला न केवल सभी तरह की बीमारियों की औषधि है, बल्कि यह सभी प्रकार की बीमारियों को रोकने के लिये एक विशिष्ट और प्रभावी रसायन भी है। यहाँ यह उल्लेख करना उचित होगा कि आयुर्वेद की दृष्टि में जराव्याधि का नाश करने वाले, स्वास्थ्यकर व ओजस्कर द्रव्य को रसायन जानना चाहिये।
त्रिफला सेवन से धातु, रस, अग्नि तथा स्रोत सब पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। यहाँ केवल कुछ उद्धरण ही पर्याप्त होंगे। भारत भैषज्य रत्नाकर 2553-2554 के अनुसार घी, मधु, गुड़ या तैल के साथ प्रयोग करने पर केवल अकेला द्रव्य त्रिफला ही सभी रोगों का शमन कर सकता है। इसी प्रकार शीतकाल में सोंठ और गुड़ के साथ, ग्रीष्मकाल में खांड और दूध के साथ, और वर्षाकाल में सोंठ के साथ त्रिफला सेवन करने पर सभी रोग समाप्त होते हैं।
त्रिफला को रसायन के रूप में उपयोग पर चरक संहिता,सुश्रुत संहिता, अष्टांग हृदय सहित सभी महत्वपूर्ण ग्रंथों में दिशानिर्देश हैं। तिमिर रोग से पीडि़त व्यक्ति को त्रिफला चूर्ण को खीर में मधु तथा खांड मिलाकर कई माह प्रात:काल लेने से या भोजन के पूर्व प्रति दिन हरीतकी चूर्ण मुनक्का, खांड या मधुके साथ लेने से लाभ होता है (अ.हृ.उ. 13.18-19)। नेत्रों की रक्षा के लिये पुराने जौ, गेहूँ, शालिधान्य, साठीधान्य, कोदो के चावल, मूंग जैसे पदार्थों को पर्याप्त घी मिलाकर याघी में बनाकर कफ-पित्तनाशक इन खाद्य-पदार्थों को लेना चाहिये। अम्ल पदार्थों में अनार, मीठे में मिश्री, नमक में सैन्धव, फलों में त्रिफला व दाख, और पेय में वर्षा का साफ़ जल उपयोग करना चाहिये। छाता-टोपी और जूता-मोजाभी उपयोग किया जाना चाहिये और समय समय पर दोष-शोधन भी करना चाहिये (अ.हृ.उ.17.61-63)। त्रिफला का मुलेठी के साथ, वंशलोचन के साथ, पीपल के साथ, सैन्धव लवण के साथ, रजत-भस्मके साथ, लोहे के भस्म के साथ, स्वर्ण भस्म के साथ, वंग भस्म के साथ, अथवा खांड के साथ मिलाकर मधु और घी में फेंटकर बने रसायन को प्रतिदिन एक वर्ष तक लेने से सबरोगों का हनन होता है और मेधा, आयु, स्मृति वबुद्धि में बढ़ोत्तरी होती है (अ.हृ.उ. 39.43)। इसी प्रकार आचार्य सुश्रुत ने भी त्रिफला को सभी रोगों को समाप्त करने वाला बताया है (सु.सू. 44.71-72)। वहाँ कहा गया है कि हरीतकी, बिभीतकी, और आमलकी को बराबर मात्रा में लेकर, एक तिहाई मात्रा घी में भूनकर व चूर्ण बनायें। त्रिफला सब रोगों का हनन करता है। इसे सदैव लेने से जवानी भी स्थिर होती है। यहाँ ध्यान यह रखना है कि किसी भी औषधि या जड़ी-बूटी का प्रयोग अपने आयुर्वेदिक डॉक्टर के परामर्श से ही किया जाना चाहिये, अन्यथा लाभ के बज़ाय हानि हो सकती है।
यहाँ तक कि धार्मिक ग्रंथों में जहाँ प्राय: दैव-व्यपाश्रय के आधार पर चिकित्सा के परामर्श की पूरी उम्मीद रहती है, उनमें भी त्रिफला को युक्ति-व्यपाश्रय के अनुरूप महत्त्व दिया गया है। गरुड़ पुराण आचारकाण्ड, अध्याय 167, श्लोक 57-58 में कहा गया है कि यहाँ भी त्रिफला को मधु या गुड़ सभी रोगों के उपचार में उपयोगी कहा गया है। त्रिफला, त्रिकटु (सोंठ, काली मिर्च, पिप्पली), शतावरी, गुडूची, या विडंग आदि केसाथ भी सभी रोगों का हनन करता है। इसी प्रकार अग्नि पुराण तृतीय खंड, 282.44 में कहा गया है कि त्रिफला, मधु, शर्करा, घी, कालीमिर्च आदि के साथ, सभी रोगों का नाश करता है।
त्रिफला वस्तुत: भोजन के अंग के रूप में भी माना गया है। यों तो स्वाद बदलने के लिये कभी-कभार सभी खाद्य-पदार्थ खाये जा सकते हैं, परन्तु निरंतर या रोजमर्रा-भोजन पर आचार्य वाग्भट द्वारा अष्टांगहृदय में दी गयी सलाह बड़े काम की है (अ.हृ.सू. 8.42-43)। वहाँ कहा है – शालिधान्य, गेहूं, जौ, साठी चावल, वनों में मिलने वाले खाद्य, हरड़, आमला, दाख-मुनक्का, परवल, मूंग, खांड, घी, वर्षा का स्वच्छ जल, दूध, मधु, अनार, सैन्धव लवण, और आँखों की ताक़त बढ़ाने के लिये रात में मधु और घी के साथ त्रिफला का सेवन किया जाना चाहिये। इसके साथ ही स्वास्थ्य की रक्षा के लिये या रोगों से मुक्ति के लिये जो भी उपयोगी आहार हो उसे लिया जा सकता है।
नियमित भोजन में ऐसे द्रव्यों को भी थोड़ी मात्रा में शामिल किया जा सकता है जो आहार, रसायन और औषधि, तीनों ही प्रकारों में वर्गीकृत हैं। त्रिफला इनमे से एक है। अन्य पदार्थों में विविध-प्रकार व विविध-रंगों वाले स्थानीय मौसमी फल, खजूर, द्राक्षा, मुनक्का, बादाम, तिल, आँवला, लहसुन, सोंठ, कालीमिर्च, पिपली, हल्दी, केसर, जीरा, धनिया, शहद, एवं गुड़ आदि ऐसे द्रव्य हैं जिनका थोड़ा सेवन उपयोगी रहता है।
आयुर्वेद में रसायनों के विविध प्रकार हैं। त्रिफला इन सब रसायनों में न केवल बनाने में सबसे आसान है, अपितु तीनों प्रजातियों के फल, हरीतिकी या हरड़, बिभीतकी या बहेड़ा तथा आमलकी या आँवला सम्पूर्ण भारतवर्ष में मिलते हैं। तीनों प्रजातियाँ पृथक-पृथक भी रसायन गुणों से भरपूर हैं, और मिलकर एक ऐसे संतुलित द्रव्य का निर्माण करती हैं जो अनेक रोगों को रोक सकने में सक्षम है। हरीतिकी और बिभीतकी उष्णवीर्य और आमलकी शीतवीर्य होने से मिल-जुलकर संतुलित त्रिफला रसायन का निर्माण होता है। त्रिफला वात, पित्त व कफ तीनों ही दोषोंका शमन करते हुये ओज़ की वृद्धि करता है, धातुओं को पुष्ट करता है एवं जरा-व्याधि का नाश करता है। इनमें हरीतिकी द्वारा मुख्यतया वात, आमलकी द्वारा पित्त तथा बिभीतकी द्वारा कफ का शमन होता है। इस सन्दर्भ में आचार्य वाग्भट का कथन है (अ.हृ.सू.6.151-157) – हरीतकी रस में कषाय, विपाक में मधुर, गुण में रुक्ष व लघु, लवण-रस-रहित, अग्निवर्धक, पाचन, मेधावर्धक, यौवन को स्थिर रखने में श्रेष्ठ, वीर्य में उष्ण, रेचक, आयु के हितकर, बुद्धि व इन्द्रियों के लिये बलप्रद है; कुष्ठ, कान्तिहीनता, स्वरभेद, जीर्ण ज्वर, विषम ज्वर, शिरोरोग, नेत्ररोग, पान्डु रोग, हृदयरोग, कामला, ग्रहणी रोग, शोषरोग, शोथ, अतिसार, मेदोदोष या मोटापा, मोह या मूर्छा, छर्दि, कृमि, श्वास, कास, प्रसेक या स्राव आदि, अर्श, प्लीहारोग, आनाह, गरविष, उदररोग, स्रोतो-विबंध, गुल्मरोग,उरुस्तम्भ, अरोचक, तथा इन जैसे कफ वात जनित रोगों को समाप्त करती है। आमलकी भी हरीतकी के सामान गुणधर्म-युक्त है, परन्तु वीर्य में शीत एवं अम्ल-रस-प्रधान, और पित्त व कफ दोषों को नष्ट करती है। बिभीतकी भी हरीतकी के सामान किन्तु विपाक में कटु एवं वीर्य में उष्ण तथा बालों के लिये हितकारी है और हरड़ से कुछ न्यून गुणवाली है। उक्त तीन फलों का योग त्रिफला है जो रसायनों में श्रेष्ठ, नेत्ररोगनाशक, व्रणरोपण, त्वचाविकार, क्लेद या सडऩ, मेदोदोष या मोटापा, प्रमेह, कफरोग व रक्तरोग नष्ट करता है।
हालांकि, त्रिफला में इन तीनों फलों को एक निश्चित अनुपात में मिलाये जाने के निर्देश शास्त्रों में मिलते हैं, किंतु एक भाग हरीतिकी, दो भाग बिभीतकी और चार भाग आमलकी से बना त्रिफला आयुर्वेदाचार्यों द्वारा बेहतर बताया गया है। छाया में सुखाये गये तीनों प्रजातियों के फलों से गुठली हटाकर समुचित अनुपात में मिलाकर पाउडर या चूर्ण बनाया जाता है तथा आयुर्वेदाचार्यों की सलाह से निश्चित अनुपान के रूप में दूध, घी, शहद, शीतल या उष्ण जल, या गुड़ के साथ लिया जा सकता है। क्वाथ बनाने के लिये एक भाग चूर्ण को 16 भाग जल में उबालते हुये आठवां हिस्सा बचने पर छान कर अनेक व्याधियों में उपयोग किया जाता है। आयुर्वेद के सिद्धान्तों के अनुसार त्रिफला को अन्य द्रव्यों के साथ मिलाते हुये लगभग 1700 प्रकार की औषधियां निर्मित की जा रहीं हैं। आयुर्वेद का कथन है कि त्रिफला का सेवन यदि एक वर्ष तक किया जाये तो यह निरोगी रखते हुये शतायु बनाने की क्षमता रखता है।
आधुनिक विज्ञान में त्रिफला पर हुये शोध का निष्कर्ष भी यही है कि यह अनेक गैर-संचारी रोगों जैसे हृदय रोग, कैन्सर, मधुमेह, मनोरोग, श्वसन-तंत्र के रोगों आदि की रोकथाम में रसायन और औषधि के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। त्रिफला शरीर के ऑक्सीडेटिव स्ट्रेस को कम करते हुये फ्री-रेडीकल स्केवेंजिंग तथा पीड़ा या प्रदाह कम करते हुये हमारे स्वास्थ्य की रक्षा करता है। वैज्ञानिक शोध के बाद लिखे गये कम से कम 250 शोधपत्रों से यह भी ज्ञात हुआ है कि त्रिफला में अभी तक 174 बायोएक्टिव द्रव्य पाये गये हैं, हालांकि कुलद्रव्यों की संख्या 3500 से अधिक हो सकती है। डॉ. भूषन पटवर्धन और उनके साथी वैज्ञानिकों द्वारा त्रिफला नेटवर्क फार्माकोलॉजी का अध्ययन बताता है कि 31 प्रोटीन-लक्ष्यों के मॉडुलेशन के माध्यम से त्रिफला कम से कम 15 रोग प्रकारों और 74 रुग्णता-संकेतकों के विरुद्ध प्रभावी है। इनमे मुख्य रूप से एडॉप्टोजेनिक, इम्यूनोमोड्यूलेटर, एंटी ऑक्सिडेंट, ज्वरनाशक, एनाल्जेसिक, जीवाणुरोधी, अनेक प्रकार के कैंसर रोकने वाला, ट्यूमर-विकास-रोधी, एंटीम्यूटाजेनिक, घाव भरने, दन्तक्षयरोधी, तनावरोधी, अनुकूलक, हाइपोग्लिसीमिक, डायबिटीज रोधी, कीमोप्रोटेक्टिव, रेडियोप्रोटेक्टिव, कीमोप्रिवेंटिव, रेचक, भूखवर्धक, गैस्ट्रिक एसिडिटीरोधी जैसे कार्य-प्रभाव शामिल हैं। त्रिफला का रसायन के रूप में प्रभाव डालने की प्रक्रिया मुख्य रूप से फ्री-रेडीकल स्केवेंजिंग तो है ही, साथ ही एंटी-ऑक्सीडेंट एंजाजाइम्स को बढ़ावा देना, लिपिडपेरोक्सीडेशन को रोकना, पीड़ाशामक, स्नायु-तंत्र का कायाकल्प आदि भी होते हैं।
त्रिफला में हाल के आंकड़े बताते हैं कि त्रिफला और इसकी घटक प्रजातियों को आज तक प्रकाशित जिन 12,256 शोधपत्रों में संदर्भित किया गया है, उनमें से 6030 शोधपत्र ऐसे हैं जिनमें कोई भारतवासी शोधकर्ता नहीं है। यही हाल त्रिकटु का है। त्रिकटु और इसकी घटक प्रजातियों और द्रव्यों को आज तक प्रकाशित जिन 15,594 शोधपत्रों में संदर्भित किया गया है, उनमें से 11,104 शोधपत्र ऐसे हैं जिनमें कोई भारतवासी शोधकर्ता नहीं है। परंतु इस सबके बावजूद यह भी एक सत्य है कि छक्के छूट जाते हैं आतुर को भरोसा दिलाने में कि त्रिफला कब्ज की दवा का चूरन नहीं, एक श्रेष्ठतम रसायन है। जीवन भर स्वस्थ रहना चाहतेहैं तो प्रमाण-आधारित बात यह है कि ऑक्सीडेटिव स्ट्रेस और इनफ्लेमेशन के निरापद प्रबंध के लिये आयुर्वेद की रसायन चिकित्सा से बेहतर कोई और चिकित्सा पद्धति विश्व में ज्ञात नहीं है। आज के समय में आयुर्वेदाचार्यो की सेवा बाज़ार में गौण हो जाती है। स्वाइन फ्लू, चिकनगुनिया, डेंगू आदि रोगों से बाज़ार और एलोपैथिक प्रतिष्ठानों ने चांदी कूट ली। जबकि वास्तव में काढ़े में उलझे आयुर्वेदाचार्यों की मेहनत ने बहुतों को इस बीमारी से मुक्त किया।
कुल मिलाकर जनमानस में त्रिफला के बारे में जो धारणा बनी हुई है कि यह केवल पाचन-तंत्र के रोगों को ठीक करता है, सही नहीं है। वस्तुत: आयुर्वेद में औषधि या रसायन सर्वप्रथम अग्नि को सम करता है जिसे हम सब प्राय: शीघ्रता से अनुभव कर लेते हैं। किन्तु अन्य लाभ हम प्राय: देख नहीं पाते। त्रिफला वह सब कार्य करता है, जो आचार्य सुश्रुत (सु.सू. 15.41) द्वारा परिभाषित स्वास्थ्य के अनुसार व्यक्ति को स्वस्थ बनाते हैं इनमें वात, पित्त, कफ, अग्नियों, धातुओं व मल-क्रिया का संतुलित होना, और आत्मा, इन्द्रियों व मन का प्रसन्न होना निहित है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा दी गयी परिभाषा भी लगभग समान है – स्वास्थ्य न केवल रोग या दुर्बलता की अनुपस्थिति अपितु पूर्ण शारीरिक, मानसिक और सामाजिक खुशहालीकी स्थिति है। रसायन के रूप में त्रिफला वह सब करता है जिसे आचार्य चरक (च.चि.1.7-8) ने रसायन सेवन के प्रभावों के सन्दर्भ में स्पष्ट किया है – रसायन दीर्घ-आयु, स्मरण-शक्ति, मेधा, आरोग्य, तरुणाई, चमकदार शरीर, मोहक रंग, उदार-स्वर, शरीर और इन्द्रिय में परम बल, विलक्षण वाणी, शिष्टाचार, कान्ति आदि प्राप्त करने का उपाय है। तात्पर्य यह कि त्रिफला जैसे रसायनों के सेवन से मन, प्राण और शरीरके स्वास्थ्य और सौन्दर्य का निखार स्थायी होने लगता है। इसके साथ ही रसायन और औषधि होने के नाते त्रिफला आयुर्वेद के दोनों मूल उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक है।
यहाँ पुन: यह बताना उपयोगी है कि त्रिफला के बारे में 1200 से अधिक आयुर्वेदाचार्यों के मध्य किये गये एक सर्वेक्षण के निष्कर्षों को अब तक प्रकाशित या संदर्भित 1400 से अधिक शोधपत्रों के प्रकाश में देखने पर प्रमाणित होता है कि ऐसे लोगों का प्रतिशत सांख्यिकीय रूप से नगण्य ही है जो स्वस्थ होने के बावजूद कुछ वर्षों से त्रिफला का सेवन करते रहे हों, और फिर भी गैर संचारी रोग जैसे हृदय रोग, मधुमेह, कैन्सर, मानसिक रोग आदि से पीडि़त हो गये हों। त्रिफला के शास्त्र-वर्णित एवं शोध-समर्थित गुणों का तुलनात्मक अध्ययन बताता है कि त्रिफला विविध प्रकार के रोगों से बचाव कर सकता है, बशर्ते खान-पान एवं जीवन-शैली संयमित व संतुलित हो, और त्रिफला की गुणवत्ता से समझौता न किया गया हो।
एक महत्वपूर्ण बात यह भी है सर्वरोगहर या सर्वरोगघ्नी होने के कारण त्रिफला का स्थान योगराज, शिलाजतुवटी, और गुडूची-लौह केसाथ ही रसशास्त्र की सर्वाधिक प्रभावी औषधियों वज्र-भस्म, अभ्रक-भस्म, अभ्र मारण निश्चन्द्रिक की श्रेणी में आ जाता है। आयुर्वेदाचार्यों के एक समूह का मानना है कि त्रिफला सर्वरोगहर नहीं है, किन्तु आयुर्वेद के आद्य प्रयोजन की दृष्टि से दोषसाम्य, धातुसाम्य, मलसाम्य कर व्यधिक्षमत्व उत्पन्न करते हुये सर्वरोगहर की श्रेणी में तो रखा ही जा सकता है। जब कोई द्रव्य प्राय: उपयोगी होता है तो उसे शत-प्रतिशत प्रभावी मान लिया जाता है। ऐसा त्रिफला के लिये भी मान लेना समुचित होगा। त्रिफला सभी रोगों की चिकित्सा में सहायक औषधि के रूप में प्रयुक्त हो सकता है, हालाँकि सर्वरोगहर नहीं कहा जा सकता। वस्तुत: इस औषधि में इतने अधिक गुण हैं कि यह लगभग हर रोग में काम में ली जा सकती है। यही कारण है कि आचार्यों ने इसे सर्वरोगघ्न कह दिया है। इस विचार से भिन्न एक विचार भी है। आयुर्वेद में त्रिदोष की विषमता रोगों का कारण है।
जिन रोगों पर सर्वरोगहर रसौषाधियाँ यथा अभ्रक भस्म, वज्र भस्म, पारद के योग, लोकनाथ रस, अग्नि रस, लोह रसायन आदि—प्रभावी हैं परन्तु रोगी इन्हें लेने में आर्थिक रूप से सक्षम नहीं है, और जब शास्त्रीय वर्णन व नवीन शोध से त्रिफला की सर्वरोगहर के रूप में उपयोगिता सिद्ध हो चुकी है, तो निश्चित रूप से त्रिफला को विहित किया जा सकता है। एक छोटे सर्वे में पाया गया है कि अभी आयुर्वेदाचार्यों की प्राथमिकता रस-औषधियों को विहित करने में होती है। सर्वरोगहर कहने का तात्पर्य यह नहीं माना जाना चाहिये कि सभी रोगों की चिकित्सा हेतु अनिवार्यत: केवल त्रिफला का ही प्रयोग किया जाये। तथापि, त्रिफला की उपयोगिता आधुनिक वैज्ञानिक अध्ययनों में भी प्रमाणित हो जाने के बावज़ूद आयुर्वेदाचार्य त्रिफला के प्रयोग में प्राय: नेत्र, खालित्य, पालित्य, व कब्ज से आगे नहीं बढ़ते।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि आयुर्वेद की संहिताओं एवं आधुनिक विज्ञान के इन-वाइवो, इन-वाइट्रो एवं कई क्लीनिकल ट्रायल्स में त्रिफला को अनेक रोगों से बचाव एवं उपचार में लाभकारी पाया गया है। हालांकि त्रिफला पर आगे अध्ययन की आवश्यकता तो है, किंतु 250 से अधिक उच्चकोटि के वैज्ञानिक शोधपत्रों का निष्कर्ष यही सिद्ध करता है कि त्रिफला भोजन, रसायन एवं औषधि तीनों ही रूपों में महत्वपूर्ण द्रव्य है जिसे आप अपने आयुर्वेदाचार्य की सलाह से जीवन भर स्वस्थ बने रहने के लिये उपयोग में ले सकते हैं |

Post a Comment

0 Comments