अमेरिका की कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने अभी जनवरी २०२० में दुनिया को आगाह किया कि सोयाबीन का तेल खाने से न केवल मोटापा और मधुमेह बढ़ता है बल्कि दिमाग में भी खराब असर पड़ता है। दिमाग में ऐसा खराब असर पड़ता है कि ऑटिज्म, अल्जाइमर और डिप्रेशन जैसी बीमारियाँ तक हो रही हैं। यह रिसर्च इंडोक्राइनोलॉजी के जर्नल में भी छप चुका है।
अमेरिकी वैज्ञानिकों ने रिसर्च के दौरान पाया कि मस्तिष्क के हाइपोथेलेमस हिस्से पर सोयाबीन तेल का स्पष्ट प्रभाव पाया जा रहा है जिसके कारण मस्तिष्क के हाइपोथेलेमस हिस्से से हार्मोन के स्राव समेत महत्वपूर्ण प्रक्रियायें होती हैं। यह रिसर्च आने के बाद अमेरिकी डॉक्टरों ने अमेरिका के वासिन्दों को सोयाबीन तेल का कम से कम इस्तेमाल की सलाह देने लगे हैं।
हम अमेरिका की बात छोड़ें, अपने देश की बात करें, क्योंकि यहाँ भी सोयाबीन थोपा जा चुका है और खाया जा रहा है। तो प्रश्न यह है कि अभी तक यही सोयाबीन असंख्य लोगों/परिवारों को प्रोटीन का अच्छा स्रोत और न जाने क्या-क्या बताकर सोयाबीन का तेल खिलाया गया जिसके परिणाम स्वरूप लोगों की चयापचय प्रणाली गड़बड़ हुयी, अनेकों बीमारियों की जड़ मोटापा से वे पीड़ित हुये, तो अनेकों मधुमेह जैसे मारक बीमारी के चंगुल में फँसे तो असंख्य लोगों में दिमागी गड़बड़ी डिप्रेशन (अवसाद) जैसी दशा बनी, अब इसका जिम्मेदार कौन होगा और उसकी भरपाई कैसे होगी।
दरअसल जिस कालखण्ड में भारत का एक मात्र स्वास्थ्य विज्ञान आयुर्वेद ही था, आयुर्वेद शास्त्रीय परम्परा में ही लोग पलते, बढ़ते और अपना जीवन रक्षा करते थे तब इस प्रकार के घातक और मारक रोगों के जंजाल में नहीं फँसते थे।
भारत के आयुर्वेद काल में तिल, सरसों, तुवरी, अलसी, कसूम, गेंहूँ, ज्वार, चावल, यवादि एरण्ड, करंज, हिंगोट,, नीम, सहजन, मालकांगुनी, बहेड़ा, हरड़, कोशम की गुठली, कपूर, खीरा, भिलावा, निशोथ, देवदारु, राल, आम की गुठली, महुआ, वंदा, अंकोल, दन्ती, जियापोता, त्रायमाण, शंखिनी, पुन्नाग, कैंथे के बीज, नारियल, पीलु, अगर, गण्डीर, निर्गुण्डी आदि के तेलों की खोज हो चुकी थी पर उनमें खाने के लिए कुछ ही तेल अनुमोदित किये गये।
दरअसल सोयाबीन भारत का दलहन है ही नहीं। आज के ४०-४५ साल पहले भारत में न तो सोयाबीन कोई खाता था न उगाता था। किन्तु लगभग ४० साल पहले ही भारत की कांग्रेसी सरकार ने अपने देश को गरीब बताकर अमेरिका से सोयाबीन के तेल की भीख माँगी। दरअसल हालैंड में इसकी पैदावार केवल सुअरों के लिए की जाती थी, सुअर इसे खाते हैं और मोटे होते हैं, उसमें मांस अधिक निकलता है। हालैंड में सुअर केवल मांस के लिए पाला जाता है।
सन् १९९१ में भारत में तत्कालीन सरकार ने हालैंण्ड सरकार से एक समझौता किया कि हम भारत में सोयाबीन उगायेंगे और हालैण्ड को देंगे तथा सुअर खायेंगे, सुअरों की जो टट्टी होगी उसे भारत में लायेंगे। हालैण्ड के लिए सोयाबीन की खेती सबसे पहले सर्वाधिक रूप से मध्य प्रदेश में करायी गयी। किसानों को कहा गया कि आप सोयाबीन की फसल का दाम अधिक से अधिक दिया जायेगा। बेचारे किसान लालच में सोयाबीन उगाना शुरू किया। जबकि सोयाबीन का प्रोटीन चना, अरहर, मूँग, मसूर, उड़द और मूँगफली से अलग तरह का है यह ऐसा प्रोटीन है कि शरीर में जमा होता है और मोटापा बढ़ाता है। आयुर्वेद मोटापा को संतर्पणजन्य व्याधि मानता है उससे मधुमेह, चर्मरोग, ब्लडप्रेशर, आलस्य, बुद्धिहीनता, तनाव आदि पैदा होता ही है। इस प्रकार भारत को तबाह करने का काम किया यहाँ की सरकारों ने। यहाँ के अंग्रेजी डॉक्टरों ने भी रिश्वत लेकर सोयाबीन और उसके तेल, रिफाइण्ड तेल को अच्छा कहना प्रारम्भ किया, किन्तु दु:ख की बात यह है कि भारत का मानव ऐसा हो गया है कि वह अपने मूल ज्ञान, प्राचीन ज्ञान, शास्त्रीय ज्ञान, पूर्वजों के ज्ञान को कमजोर, अवैज्ञानिक और दुर्बल मानने लगा है और विदेशियों के ज्ञान, निष्ठा, विज्ञान को बढ़िया। जिसके परिणाम बहुत ही घातक आ रहे हैं इसलिए फिर अपनी ओर लौटने तथा लौटाने की जरूरत है अन्यथा वह दिन दूर नहीं कि हमारी नस्ल बर्बादी से भरी होगी और हम किंकर्तव्यविमूढ़ होंगे।
देखिये खाद्य तेलों के प्रयोग के विषय में आयुर्वेद शास्त्र ने एक गाइड लाइन दी थी-
तैलं न सेवयेद्धीमान् यस्यकस्यचयद्भवेत्।
विषसात्म्यगुणत्वाच्च योगे तन्न न प्रयोजयेत् ।।
शा.ग्रा.नि. भूषण।।
यानी व्यक्ति की बुद्धिमानी इसी में है कि जिस तिस के बताये तेल का सेवन व्यक्ति को नहीं करना चाहिए, उसमें विष की समानता होने से बिना विचारे किसी योग में प्रयोग न करें।
इस गाइड लाइन को पढ़ने से ऐसा लगता है कि मानो भारत का ऋषि जानता था कि आने वाले समय में भारत की सरकारें भारत के लोगों को हानिकारक तेल खिलायेंगी और भारत के लोग बर्बाद होंगे इसलिए ऐसा लिख दिया जाय कि जो तेल आयुर्वेद अनुमोदित नहीं उसे न खाया जाय।
जय भारत! जय आयुष!!
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